लगता है कि संघ परिवार से जुड़े कुछ संगठनों ने धर्मांतरण के मुद्दे को एक बहुत सोच समझ के ज्वलन्त समस्या के रूप में खड़ा कर दिया है। अभी तक धर्मांतरण का विरोध अधिकतर हिन्दू संगठन ही करते रहे क्योंकि धर्म परिवर्तन की मुहिम ईसाई व मुस्लिम संगठन नहीं चलाते रहे हैं। यह धर्मान्तरण का ही कमाल है कि देश के उत्तर पूर्वी प्रान्तों में विभिन्न ईसाई संगठनों ने मिलकर देश के उत्तर पूर्वी प्रान्तों की demographic profile पूर्णतया बदल डाली। मसलन देश की आजादी के समय नागालैंड में केवल 2 प्रतिशत ईसाई जनसंख्या थी। आज नागालैंड में करीब 98 प्रतिशत लोग ईसाई हो चुके हैं। झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा इत्यादि प्रान्तों की आदिवासी कहलाने वाली जातियां भी ईसाई मिशनरियों के लपेटे में आ चुकी हैं।
मुस्लिम संगठन भी कई प्रांतों में गरीब दलित तबकों को धर्म परिवर्तन का शिकार बनाते आये हैं। इससे आसाम व बंगाल जैसे समान्तर प्रान्तों में तो बहुत से हिन्दू बाहुल्य जिले, मुस्लिम बाहुल्य जिलों में बदल चुके हैं। यह कोई संयोग की बात नहीं कि जहां जहां हिन्दू धर्म से काट कर गरीब तबकों को ईसाई धर्म या इस्लाम के दायरे में शामिल कर लिया गया, ऐसे सभी प्रांतों व जिलों में अलगाववादी, आतंकवादी व माओवादी विचारधारा व संगठन मजबूत हुए हैं। जब भी भाजपा या हिन्दू संगठनों ने धर्मांतरण के इन खतरनाक पहलुओं की ओर ध्यान दिलाया, तो कांग्रेस व वामपंथी पार्टियों ने धर्मनिरपेक्षता व संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता की दी आजादी का हवाला देकर भाजपा को चुप करा दिया और उन्हें फासिस्ट व अल्पसंख्यक विरोधी करार दिया।
इस मामले में भाजपा की मांग कि धर्मान्तरण पर कानूनी प्रतिबंध लगाया जाये, महात्मा गांधी के विचारों से बिल्कुल मेल खाती है। बापू का भी ये मानना था कि धर्मान्तरण के पीछे बहुत ही हिंसात्मक सोच छुपी हुई है, क्योंकि यह काम दूसरों के पैदायशी धर्म व संस्कारों पर घटिया आक्षेप लगाये बगैर होता ही नहीं। ईसाई व इस्लामी मिशनरी हिन्दू आस्थाओं, देवी देवताओं व संस्कृति पर बहुत ही भद्दे व आपत्तिजनक कटाक्षों को ही हथियार बनाकर धर्म परिवर्तन का काम करते आये हैं। जहां जहां वे सफल हुये है वहां वहां समाज और पारिवारिक रिश्ते दोनों टूटे हैं।
अब जब हिन्दु संगठनों ने खुलेआम ‘’घर वापसी’’ के नाम पर धर्म परिवर्तन की लड़ाकू मुहिम छेड़ दी है, तो इस सवाल पर दोहरे मापदंड की राजनीति चलाना कठिन हो जायेगा। यदि ईसाई व मुस्लिम संगठनों द्वारा किये जा रहे धर्म परिवर्तनों का बचाव कांग्रेस व वामपंथी सगंठन धार्मिक स्वतन्त्रता का नाम देकर करते हैं, तो यह हक हिन्दू संगठनों को भी देना पड़ेगा। यदि इस पक्ष के लोग हिन्दुओं द्वारा किये जा रहे धर्म परिवर्तन के खिलाफ उठ खड़े होते हैं, तो उन्हें ईसाईयों व मुसलमानों पर भी बंदिशें स्वीकार करनी पड़ेंगी। इस लिहाज से विश्व हिन्दू परिषद, आर्य समाज व आरएसएस इत्यादि ने बहुत ही शातिर चाल चली है।
परंतु दुख इस बात का है कि हिन्दू संगठनों ने आगरा में जो घटिया हथकंडे अपना कर 200 गरीब फटेहाल कूड़ा बीनने वाले बांग्लादेशियों के साथ ‘’घर वापसी’’ की नौटंकी रची, वह सभी संवेदनशील हिन्दुओं के आत्म सम्मान पर गहरी चोट पहुंचाती है। यदि हिन्दू संगठन ईसाई व मुस्लिम संगठनों के साथ इस सवाल पर टक्कर लेना चाहते हैं तो उनके शातिर तौर तरीकों से कुछ सबक लें। नहीं तो उन्हें बहुत जग हंसाई झेलनी पड़ेगी और इन हरकतों से हिन्दू धर्म की छवि बहुत बिगड़ेगी।
जब ईसाई लोग किसी दलित या आदिवासी परिवार को अपने धर्म के आगोश में ले लेते हैं, तो अक्सर उस परिवार को बेहतर शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं की गारंटी भी मिल जाती है। इसके अलावा उनके नेटवर्क द्वारा उन्हें नौकरी इत्यादि ढूंढने में भी बहुत मदद मिलती है। इसके साथ साथ तिरस्कृत जीवन से भी काफी हद तक मुक्ति मिल जाती है।
इसी प्रकार मुस्लिम धर्म में शामिल होने वाले परिवारों को भी पिछड़े और अछूत होने की मोहर से कुछ राहत मिल जाती है, व कई प्रकार की आर्थिक व सामाजिक सुविधायें भी उन्हें मुहैया कराई जाती हैं। परन्तु हिन्दु संगठनों ने अपने को इस दिशा में बहुत कम सक्षम किया है। आज भी अनुसूचित जाति या जनजाति के प्रति तिरस्कार और घृणा की भावना से हिन्दू समाज अपने को मुक्त नहीं कर पाया है। इनकी तुलना में आर्ट ऑफ लिविंग जैसे नये हिन्दू संगठन जो जात पात के फसादों से ऊपर उठकर काम कर रहे हैं और जिन्होनें बेहतरीन जीवन शैली प्रदान करने के कुछ असरदार प्रयास किये हैं, उनकी ओर लाखों लोग स्वयं ही खिंचे आ रहे हैं, हालांकि वो कभी धर्म परिवर्तन जैसा शब्द जुबां पर भी नहीं लाते। आर्यसमाज और विश्व हिन्दू परिषद को आर्ट ऑफ लिविंग जैसे संगठनों से ये सीखने की जरूरत है, कि कैसे हिन्दू धर्म की अंदरूनी विशाल हृदयता के सहारे उसे इतना आकर्षक बनाया जा सकता है कि किसी को अन्य धर्मों की ओर तांकझांक करने की आवश्यकता ही न पड़े।